आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।
उस जुल्फ जाल ने जकड़ लिया , अब उड़ने की परवाह नहीं॥
जो आजादी का शंख फूंकते , उन कवियों का आह्वान।
कुंतल कारा का तोड़ बने जो , रचें एक भी ऐसा गान॥
मुझको तो अब अहसास हुआ
उलझन अलकों की ऐसी है।
वीणा-पाणि का पुत्र कवि भी, पा सकता जिसकी थाह नहीं।
आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।
जब केश-पाश में जकड़ चुका ,तब बंधन-सुख परिचय पाया।
तृषित-तप्त जीवन में लहराए, बन कर मेघ-घटा छाया ॥
व्याकुल उर की प्यास बुझेगी
महकेगी अब मन की बगिया।
श्यामल-सावन को छोड़ सकूँ , मुझमें ऐसा उत्साह नहीं॥
आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।।
भूल-भूलैया में बालों की मेरा सब चिंतन खो जाए।
सुलझाने में इनकी उलझन , पूरा सब जीवन हो जाए॥
कस्तूरी कच-गंध-महक से
मन-मानस संतृप्त हो चुके।
जो इस वन से बहार जाए, वो मुझे चाहिए राह नहीं॥
आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।।
प्रकृति की समस्त उपमाएं , उस एक वदन में विद्यमान ।
सरल नयन में गहरा सागर, तिरछी चितवन में तूफ़ान॥
दशन-द्युति में चपला चमके
भौहों में खिंचता शक्र-चाप।
अधर ओस से बढ़ कर पावन, आह ! होती तृप्त निगाह नहीं॥
आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।
गंगा धर शर्मा "हिंदुस्तान"
अजमेर (राज)