शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आजादी की चाह नहीं

आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं। 
उस जुल्फ जाल ने जकड़ लिया , अब उड़ने की परवाह नहीं॥
 जो आजादी का शंख फूंकते , उन कवियों का आह्वान।
 कुंतल कारा का तोड़ बने जो , रचें एक भी ऐसा गान॥ 
मुझको तो अब अहसास हुआ 
उलझन अलकों की ऐसी है। 
वीणा-पाणि का पुत्र कवि भी, पा सकता जिसकी थाह नहीं। आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं। 

 जब केश-पाश में जकड़ चुका ,तब बंधन-सुख परिचय पाया। तृषित-तप्त जीवन में लहराए, बन कर मेघ-घटा छाया ॥ 
व्याकुल उर की प्यास बुझेगी 
 महकेगी अब मन की बगिया। 
श्यामल-सावन को छोड़ सकूँ , मुझमें ऐसा उत्साह नहीं॥ आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।।

भूल-भूलैया में बालों की मेरा सब चिंतन खो जाए। 
सुलझाने में इनकी उलझन , पूरा सब जीवन हो जाए॥ 
कस्तूरी कच-गंध-महक से 
मन-मानस संतृप्त हो चुके। 
जो इस वन से बहार जाए, वो मुझे चाहिए राह नहीं॥ 
आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं।।

प्रकृति की समस्त उपमाएं , उस एक वदन में विद्यमान । 
सरल नयन में गहरा सागर, तिरछी चितवन में तूफ़ान॥ 
दशन-द्युति में चपला चमके 
भौहों में खिंचता शक्र-चाप। 
अधर ओस से बढ़ कर पावन, आह ! होती तृप्त निगाह नहीं॥ आजाद-दिवस है, पर आज मुझे आजादी की चाह नहीं। 
 गंगा धर शर्मा "हिंदुस्तान"
अजमेर (राज)