शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

पूर्ण निमीलित नेत्रों के नाम

पद्म पलाश उत्फुल्ल दृगों का निमिलन
सरसिज का हो ज्यों मधुपालिंगन


आकाशाचारी उन्मुक्त पथिक को पकड़ लिया है
दुर्विनीत द्विरेफ जो पंखुरियों में जकड़ लिया है
कौमुदी मदिर पवन से कहती
है तो बंधन, पर कितना पावन


अली-कली संसर्ग स्वप्न में, बीत चुके जो क्षण हैं
प्रेम-समर-सीकर-बिन्दु बन, झलके तुहिन के कण हैं
अलस-पलक में बंद भ्रमर भी,
आः! नहीं करता अब मुक्ति-जतन


अंशुमाली ने आँखे खोल, जिस पल जग को हेरा
रमणी-श्यामा-पद्मा को, लाज भाव ने घेरा
हौले से ,अति मंद स्मित करके
तब झटपट खोले हैं कंज नयन


पद्म पलाश उत्फुल्ल दृगों का निमिलन
सरसिज का हो ज्यों मधुपालिंगन

गंगा धर शर्मा "हिंदुस्तान"

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